Bihar Board 12th Hindi Subjective Question 2025: बिहार बोर्ड की तरफ से हिंदी,संक्षिप्त कवि परिचय, प्रश्न उत्तर , officialbseb.com
Bihar Board 12th Hindi Subjective Question 2025:
प्रश्न 1. नाभादास का काव्यात्मक परिचय दें। /Sc. & Com. 2015AJ
उत्तर- नाभादास भक्तिकाल की उत्तरवर्ती हासोन्मुखी रामभक्ति परंपरा के कवि हैं। इनका संबंध रामभक्ति परंपरा में ‘रसिक-संप्रदाय’ से है। जिस तरह कृष्णभक्ति शाखा में ‘सखी संप्रदाय’ का आविर्भाव हुआ, उसी तरह रामभक्ति शाखा में ‘रसिक संप्रदाय’ का आविर्भाव हुआ। ‘रसिक संप्रदाय’ में मर्यादा के स्थान पर माधुर्यभाव का पुट था। वे रामभक्त कवि अग्रदास के शिष्य बताए जाते हैं। “ये वैष्णवों के एक निश्चित संप्रदाय में दीक्षित थे, उनकी सोच और मान्यताओं में किसी तरह की संकीर्णता नहीं थी। पक्षपात, दुराग्रह या कट्टरता से वे पूर्णतया मुक्त एक भावुक, सहृदय, विवेक संपन्न सच्चे वैष्णव थे।” आलोचक प्रवर और हिन्दी साहित्य के इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नाभादास के संबंध में हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है : “ये उपर्युक्त अग्रदास के शिष्य बड़े भक्त और साधुसेवी थे। ये संवत् 1657 के लगभग विद्यमान थे और तुलसीदास की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भक्तमाल’ संवत् 1642 के पीछे बना और संवत् 1769 में प्रियादास ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में 200 भक्तों के चमत्कारपूर्ण चरित्र 316 छप्पयों में लिखे गए हैं। डॉ० बच्चन सिंह ‘भक्तमाल’ का रचनाकाल 1686 (संवत्) के बाद ही ठहराते हैं। नाभादास की कृति का आधार इनकी कृति भक्तमाल है। इसमें छप्पयों की संख्या 316 है। पर, यह संख्या (आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा निर्धारित) सही नहीं है। संप्रति ‘भक्तमाल’ के मुद्रित और हस्तलिखित संस्करणों में 214 छप्पय ही है। इनमें 17 दोहे और 197 छप्पय हैं। ‘भक्तकाल’ के संबंध में एक प्रश्न खड़ा होता है कि इसके मूल रचयिता नाभादास हैं या नारायणदास अथवा दोनों एक ही हैं। अभी तक इतिहासकार एक निर्णय पर नहीं आ सके हैं। ग्रियर्सन कहीं ‘नारायणदास’ को नाभादास का उपनाम मानते हैं तो कहीं इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं। वास्तविकता यही है कि ‘भक्तमाल’ में नारायणदास और नाभादास, दोनों के छप्पय हैं। नारायणदास के कवि के रूप को बहुत पहले से ही मान्यता मिली हुई है, पर नाभादास का कवि रूप में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। परवर्ती टीकाकारों ने इनके नाम का उल्लेख किया है। नाभादास ने दो ‘अष्टयाम’ लिखे हैं एक गद्य में (ब्रजभाषा गद्य में), दूसरा पद्य में पद्यबद्ध अष्टयाम (रामचरितमानस’ की दोहा चौपाई शैली में) नाभादास ने नारायणदास का अप्रदास के सहचर के बाद किया है। रामचरित संबंधी प्रकीर्ण पदों का संग्रह भी प्राप्त होता है।
प्रश्न 2. कबीरदास का कवि परिचय लिखें। [Sc. & Com. 2010A, 2009A; Arts 20164, 2015A/
उत्तर-कबीर (1399-1518) : बाल्यावस्था में ही कबीर के भीतर भक्ति की प्रवृत्ति पनप चुकी थी। यह बात प्रसिद्ध है कि रामानंद उनके गुरु थे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। आत्मचिंतन एवं लोकनिरीक्षण से जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, उसे ही निर्भयतापूर्वक अपनी साखियों और पदों में अभिव्यक्त किया। वर्णाश्रम धर्म में प्रचलित कुरीतियों और लोक में प्रचलित अपधर्म को कबीर ने निशाने पर लिया। वे ऐसे कर्मयोगी थे जो अंधविश्वासों की खाई पाटने के लिए अपना घर जलाने को सदा तैयार रहते थे। उनकी कथनी और करनी में जबरदस्त एकता थी।
उनकी कविता में छंद, अलंकार, शब्द-शक्ति आदि गौण हैं और लोकमंगल की चिंता प्रधान है। उनकी वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से है। बीजक के तीन भाग हैं-सबद में गेयपद हैं-रमैनी, चौपाई तथा साखी दोहा छंद में हैं। सिखों के ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में भी कबीर के नाम से ‘पद’ तथा ‘सलोकु’ संकलित हैं। कबीर की अभिव्यंजना शैली बहुत सशक्त थी। उनकी भाषा अनेक बोलियों का मिश्रण है। इस मिश्रित भाषा को सधुक्कड़ी या पंचमेल कहा गया। कबीर के काव्य में प्रतीक योजना का भी सुंदर निर्वाह हुआ है।
प्रश्न 3. सूरदास का कवि परिचय लिखें। (Sc. & Com. 2009AJ
उत्तर-सूरदास (1478-1583) सूरदास का जन्म 15वीं शती के अंतिम वर्षों में हुआ था। ब्रज के गउघाट में श्री वल्लभाचार्य से उनका साक्षात्कार हुआ था। वल्लभाचार्य से उपदेश पाकर वे श्रीकृष्ण के लीला विषयक पदों की रचना करने लगे। पहले सूर के भक्ति विषयक पद विनय और दैन्य भाव के होते थे। श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आने पर उनके पद वात्सल्य और माधुर्य भाव के होने लगे। सूरदास द्वारा रचित पुस्तकों में ‘सूरसागर’, ‘साहित्यलहरी’ आदि प्रमुख हैं। ‘सूरसागर’ उनकी श्रेष्ठ कृति है। सूरसागर की रचना ‘भागवत’ की पद्धति पर द्वादश स्कंधों में हुई है। ‘साहित्यलहरी’ सूरदास के सुप्रसिद्ध दृष्टकूट पदों का संग्रह है। इसमें अर्थगोपन की शैली में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। अलंकार निरूपण की दृष्टि से भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है।
ब्रजभाषा में गीतिकाव्य की परंपरा को सूरदास ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया। कविता, संगीत, नाट्य, चित्र, मूर्ति आदि कलाओं का एकत्र समाहार उनके काव्य में है। ब्रजभाषा को ग्रामीण जनपद से उठाकर उन्होंने नगर और ग्राम के संधिस्थल पर ला बिठाया। उनकी भाषा में तत्सस शब्दों का प्रचुर प्रयोग है, फिर भी वह सुगम है। संस्कृति और फारसी अरबी शब्दों के साथ ब्रजभाषा की माधुरी सूर की भाषा शैली में सजीव विद्यमान है। अवधी और पूर्वी हिंदी के शब्द भी उनकी भाषा में हैं।
कृष्ण-भक्ति सूर काव्य का मुख्य विषय है। ‘भागवत’ के आधार पर उन्होंने राधा-कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन किया है। सूरसागर में उन्होंने श्रीकृष्ण के शैशव और किशोर वय की विविध लीलाओं का स्थान दिया है, इनमें उनकी अंतर्रात्मा गहरी अनुभूति तक उतर सकी है। बालक की विविध चेष्टाओं और विनोदों के क्रीडास्थल, मातृहृदय की अभिलाषाओं, उत्कंठाओं और भावनाओं के वर्णन में सूरदास हिंदी के श्रेष्ठतम कवि हैं। भक्ति के साथ शृंगार को जोड़कर उसके संयोग और वियोग पक्ष का मार्मिक चित्रण सूर के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है। वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत प्रसंग सूर की काव्य कला का उत्कृष्ट निदर्शन है
प्रश्न 4. किसी एक छायावादी कवि (जयशंकर प्रसाद) का परिचय दीजिए। Arts 2011A1
उत्तर- जयशंकर प्रसाद छायावाद के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनका जन्म 1889 ई० में वाराणसी में ‘सुँघनी साहू’ परिवार में हुआ। इनके पिता देवी प्रसाद साई के यहाँ साहित्यकारों को बड़ा मान मिलता था। प्रसाद ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा क्वाँस कॉलेज से प्राप्त की, परन्तु परिस्थितियों से मजबूर होकर उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा तथा घर पर ही संस्कृत, फारसी, उर्दू और हिन्दी का अध्ययन किया। किशोरावस्था में हो माता-पिता तथा बड़े भाई का देहान्त हो जाने के कारण परिवार और व्यापार का उत्तरदायित्व इन्हें संभालना पड़ा, जिसे इन्होंने हँसते-मुस्कुराते हुए सँभाला। उनका जीवन संघ और कष्टों में बीता। पर साहित्य पूजन और साहित्य- अध्ययन के प्रति वे सदैव जागरूक रहे। 1937 ई. में इनका देहावसान हुआ।
रचनाएँ- जयशंकर प्रसाद हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार हैं। वे कवि नाटककार, कहानीकार तथा उपन्यासकार के रूप में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन्हें हिन्दी का रवीन्द्र कहा जाता है। चित्रधारा, काननकुसुम, प्रेमपथिक महाराणा का महत्त्व, झरना, आँसू तथा कामायनी उनकी काव्य रचनाएँ हैं। ‘कामायनी’ प्रसाद का महाकाव्य है। छायावाद की ही नहीं, आधुनिक हिन्दी काव्य की अमूल्य निधि है। प्रसाद के नाटक हैं-विशाख, अजातशत्रु, स्कन्दगुप्त ध्रुवस्वामिनी, चन्द्रगुप्त आदि कंकाल, तितली, इरावती (अधूरा) इनके उपन्यास हैं। छाया आँधी, प्रतिध्वनि इन्द्रजाल और आकाशदीप इनके पाँच कहानी-संग्रह है।
भाषा एवं काव्य-शैली प्रसाद के काव्य की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं। ये छायावादी कवि हैं तथा उनके काव्य में प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण है। प्रकृति-सौन्दर्य के वे अद्भुत चितेरे हैं। नारी की गरिमा उनके काव्यों और नाटकों में अंकित है। रहस्य भावना भी कहीं-कहीं झलकती है। उनका महाकाव्य ‘कामायनी’ मानवता के विकास की कथा प्रस्तुत करता है। प्रसाद के काव्य के वस्तु-पक्ष (भाव-पक्ष) की भाँति उनके काव्य का कला भाव भी सशक्त है। खड़ीबोली को साहित्यिक सौष्ठव प्रदान करने में उनका योगदान प्रशंसनीय है। रस, छंद, अलंकार आदि की रमणीयता उनके काव्य में है। समग्रतः प्रसाद आधुनिक काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं।
Bihar Board 12th Hindi Subjective Question 2025